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“हम आधी आबादी है, लेकिन दिखते क्यूं नहीं”

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“हम आधी आबादी है, लेकिन दिखते क्यूं नहीं”

भारतीय शास्त्रों में “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र रमंते देवता” लिखा गया है।लेकिन क्या यह पूजनीय स्वरूप प्राचीन समाज से आज के समाज में देखने मिलता है? यह सवाल महिला की स्तिथि को देखकर हर पल दिमाग में आता है।आज के समय में महिला की आर्थिक स्वावलंबिता, लैंगिक समानता और संविधानिक क़ानूनी अधिकार का अभाव 3 बड़े मुद्दे है। महिलाओं की राजनीतिक स्तिथि को देखे तो संविधान ने अनुच्छेद 14,15,16,19,21,23,24,39,42,47 के तहत अधिकार दिए है।साथ ही देश की संसद में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई क़ानून पारित किए गए है ।लेकिन इन अधिनियम को पास करवाने में महिला के प्रतिनिधित्व को देखें वो केवल 10 प्रतिशत ही रहा है।आज की स्तिथि में महिला का प्रतिनिधित्व संसद में केवल 14% है और देश की सभी विधानसभा का औसत देखें तो महिला प्रतिनिधित्व मात्र 9% है।पंचायती राज्य में 33% आरक्षण संविधान के तहत है जिसे कई राज्यों में बढ़ाकर 50% कर दिया गया है लेकिन वास्तविकता में जब मैदान में इसे देखते है तो यह मुखौटा मात्र नज़र आती है और गाँवों में सरपंच पति जैसी अवधारणा सामने दिखती है यहाँ तक महिला को वोट पति या ससुर के नाम में दिये जाते है और लोग काम के लिए भी उन्हें ही से संपर्क करते है।कई जगहों में ऐसा दिखता है मानो महिला पार्षद और महिला सरपंच मात्र हस्ताक्षर के लिए होती है।ऐसे ही केंद्र और राज्यों में धनबल बाहुबल के बढ़ते प्रयोग ने महिला को राजनीति के खेल में उतरना मुश्किल बना दिया है क्योंकि अमूमन पिछड़े शैक्षिक और आर्थिक स्तर ने महिलाओं को धन संग्रहित करने से रोका है तो बाहर जाने की पाबंदी के कारण वे लोकप्रिय नेता बनने में असमर्थ होती है ऐसे में बड़े राजनीतिक परिवार की बहू बेटी ना हो पाने की स्तिथि में उनका राजनीतिक ऊँचाई में पहँचना कठिन होता है।अब लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के आरक्षण के लिए बिल पारित तो हो गया है लेकिन उसके लागू होने और उसके प्रभाव सामने में काफ़ी वक्त है। महिलाओं की आर्थिक स्तिथि की बात करे तो 49% जनसंख्या का केवल 27% ही वर्कफोर्स में काम कर रही है। समान मज़दूरी अधिनियम 1976 के बाद भी ग्राउंड में यह देखने नहीं मिलता की महिला पुरुष को समान वेतन मिलता हो। पढ़ी लिखी शहरी महिलाओं की बेरोज़गारी दर 15% है।ज़मीनी अधिकार की बात करे तो हिंदू उत्तराधिकर क़ानून होने के बाद भी महिला का पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा ना के बराबर है यह भारत के समाज में पितृसत्तात्मक सोच का उदाहरण है कि हम लड़की को दहेज देंगे और लड़के को संपत्ति। भारत की महिला को आर्थिक रूप स्वावलंबी होना सबसे बड़ी समस्या है अच्छी शिक्षा और जॉब होने के बाद भी शादी के बाद पति और उसके परिवार के अनुसार काम करना पड़ता है, बच्चे होने के बाद जॉब छोड़ना पड़ता है। साथ ही रोज़गार में हिस्सा की बात करे तो वे मजदूरी, घर के काम जैसे कम आय के साधन में लगी हुई है। प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी केवल 13% है। इस प्रकार शिक्षा, रोज़गार में पिछड़ने के बाद उनके हिस्से में रसोई का काम ही आता है जो उनकी ज़िंदगी बन जाता है ।यह देश की जीडीपी और महिला के विकास में बड़ा अवरोध है। आज महिला की सामाजिक स्तिथि की बात करे तो दहेज, बलात्कार और पोषण स्तर में एक भयावह स्तिथि देखने मिलती है। आज भारत की 50% से ज़्यादा महिलायें अनेमिया से जूझ रही है मातृत्व मृत्यु दर आज भी लाख में 103 है। महिलाओं के विरुद्ध हर 2 मिनट में 1 अपराध हो रहे है, जिसमे सगे संबंधियों के द्वारा ज्यादा किए जाते है।धार्मिक स्थलों में प्रवेश से लेकर पुजारी के पद तक पितृत्तात्मक सोच के अनुसार ही अपनी आस्था मानती नज़र आती है। शिक्षा की बात की जाये तो आज भी बेटों को बेटी से ज़्यादा वरीयता दी जा रही है इस कारण ही लड़की का स्कूल ड्राप आउट लड़को से कहीं ज़्यादा दिखता है। कम उम्र में शादी महिलाओं के ख़राब स्वास्थ्य का कारण बनती है।इसके साथ ही प्रवासन से होने वाली समस्या का भोग भी महिलाओं को ही भोगना पड़ता है। महिलाओं को सृष्टि का निर्माता कहा जाता है और कला संस्कृति में आवश्यक रचनात्मकता उनके कार्यों में देखी भी जा सकती है। गीत, संगीत ,लोक नाट्य, लोक नृत्य और लोक चित्रकला में महिलायों की भागीदारी व्यापक है। तीज त्योहार में उनके गान, पेंटिंग और नृत्य से परिवार समाज में रौनक़ आती है। घर को आकर्षक दिखना उनकी रचनात्मकता का ही परिणाम होता है। उदाहरण दुर्गा बाई व्योम की गोंड पेंटिंग। मैथिली ठाकुर ,तीजन बाई ,मालिनी अवस्थी, जोधाइया बाई और नेहा राठौर जैसी महिलायें इसकी उदाहरण है, जिन्होंने भारतीय स्थानीय संस्कृति को समाज में पिरोए रखा है। लेकिन आज जब सोशल मीडिया के जमाने में कला का प्रयोग आर्थिक सशक्त होने के लिए किया जा सकता है तब कुछ को छोड़कर डिजिटल साक्षरता की कमी के कारण महिलायें यहाँ पीछे होती नज़र आती है। हालांकि देश में योजना , कार्यक्रम और कानूनों के जरिए काफी सुधार आए है लेकिन अभी देश , समाज और प्रशासन को समानता तक पहुंच के लिए कई बड़े कार्य करने है।जिसकी दिशा में हम अग्रसर है बस रफ्तार बनाने की आवश्यकता है।

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harshit chourasia

।जान रहे है,खुद को धीरे धीरे, मद्धम मद्धम।