एक जिंदगी जो सिर्फ जल, जंगल और जमीन चाहती है, उससे ज्यादा किसी भौतिकतावादी वस्तुओं का उन्हें मोह नहीं है| ऐसी आदिवासी जनजाति भारत की आठ प्रतिशत आबादी है। जिनका केंद्रीकरण मुख्यतः भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों तथा पूर्वी राज्यों के भाग में आता है। चाहे विस्थापन हो या किसी बड़े प्रोजेक्ट को लगाना हो या वैश्वीकरण के प्रभाव हो, यदि किसी समुदाय पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है तो वह आदिवासी समुदाय है। उदाहरण आप सरदार सरोवर डेम के लिए हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन से समझ सकते है।अपनी पहचान की रक्षा के लिए ब्रिटिश राज से आज तक इन मुद्दों को लेकर आदिवासी संघर्ष करते नजर आते हैं। भारत में आदिवासियों की राजनीतिक स्थिति को देखें तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के नाम से इन्हें चिन्हित किया गया है। अनुसूचित जनजाति आयोग आदिवासियों के अधिकारों और मसलों को हल करने के लिए बनाया गया है। भारत की राजनीतिक व्यवस्था में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं। पूरे भारत में कुल 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। साथ ही अनुसूची 5 और अनुसूची 6 में प्रशासन की व्यवस्था है। पंचायती राज कानून की तर्ज पर पेसा कानून आदिवासियों के लिए स्थानीय कानून को नजर रखते हुए बनाया गया है। लेकिन आज प्रतिनिधित्व की बात की जाए तो इन आरक्षित सीटों के अलावा बहुत कम या ना के बराबर सीट ही हैं जिनमें आदिवासी उम्मीदवार उतारे जाते हैं यही स्थिति पंचायती राज व्यवस्था में दिखती है जहां यदि आरक्षित सीट न हो तो इन उम्मीदवारों को शायद एक भी सीट न दी जाए इसके पीछे की वजह जातिवाद का वर्चस्व और आर्थिक संकेंद्रण माना जाता है। भारत में इन समुदाय के सांसद विधायक तो चुने जाते हैं लेकिन मंत्रिमंडल के उच्च स्तरों पर उनकी उपस्थिति बिल्कुल नगण्य है| आज भी यह समुदाय अपने प्रतिनिधित्व के लिए संघर्ष करता नजर आता है जिस कारण कुछ चुनिंदा कानून और नीतियों के अलावा इस समुदाय के लिए व्यापक पैमाने पर आजादी के 70 साल बाद भी कोई कार्य नहीं किया गया। आदिवासियों की आर्थिक स्थिति की बात की जाए तो यह समुदाय ऐसी भोगौलिक परिस्थितियों में निवास करते हैं जो पथरीले और पहाड़ी इलाके हैं। ऐसी कठिन परिस्थितियों में वे मुख्य धारा से अलग हो जाते हैं जिससे सड़क और रेल जैसी परिवहन सेवायें इन समुदायों के पास नहीं पहुंच पाती। जिसके कारण उनकी स्थिति अत्यधिक खराब हो जाती है साथ ही यह समुदाय की 70% से अधिक जनसंख्या का जीवन पशुचारण, खेती तथा लघु वन उपज संग्रह से जीवन यापन करता हुआ गुजरता है। इन समुदायों के पास कृषि करने के लिए आवश्यक धन की कमी के कारण यह साहूकारों से उधार लेते हैं और लगातार चंगुल में फसते जाते हैं जो इनकी गरीबी का एक बड़ा कारण है। इसके साथ-साथ यह आदिवासी मजदूरों के रूप में चाय बागानों में बड़ी-बड़ी फैक्ट्री में काम करते पाए जाते हैं। जहां भी यह निम्न स्तर का जीवन यापन करते हैं। इन समुदायों के पिछड़ेपन का कारण शिक्षा की कमी साथ-साथ कौशल की कमी का होना भी है। सामाजिक स्तिथि की बात करें तो ये आज भी सामाजिक संपर्क स्थापित करने में अपने-आप को सहज नहीं पाती हैं। इस कारण ये सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव, भूमि अलगाव, अस्पृश्यता की भावना महसूस करती हैं। इसी के साथ इनमें शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य तथा पोषण संबंधी सुविधाओं से वंचन की स्थिति भी मिलती है। आज भी जनजातीय समुदायों का एक बहुत बड़ा वर्ग निरक्षर है| जिससे ये आम बोलचाल की भाषा को समझ नहीं पाते हैं। सरकार की कौन-कौन सी योजनाएँ इन तबकों के लिये हैं इसकी जानकारी तक इनको नहीं हो पाती है जो इनके सामाजिक रूप से पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है। धार्मिक अलगाव भी जनजातियों की समस्याओं का एक बहुत बड़ा पहलू है। इन जनजातियों के अपने अलग देवी-देवता होते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है समाज में अन्य वर्गों द्वारा इनके प्रति छुआछूत का व्यवहार। अगर हम थोड़ा पीछे जायें तो पाते हैं कि इन जनजातियों को अछूत तथा अनार्य मानकर समाज से बेदखल कर दिया जाता था| सार्वजनिक मंदिरों में प्रवेश तथा पवित्र स्थानों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था। आज भी इनकी स्थिति ले-देकर यही है। आदिवासी समुदाय की सबसे बड़ी खासियत यह है कि स्त्री पुरुष समानता का पाठ यदि कोई पढ़ा सकता है तो वह यही वर्ग है। जहां के विवाह प्रथा मानवीय है जहां दहेज के प्रति एक तर्क है। ऑनर किलिंग से दूर इस समाज में लिंगानुपात महिलाओं के पक्ष में झुकता नजर आता है। आदिवासियों की सांस्कृतिक स्थिति की बात की जाए तो यह भारतीय संस्कृति भारत का खजाना है। आदिवासियों के तीज त्यौहार, जनजातीय गीत, जनजातीय नृत्य पूर्ण रूप से प्रकृति आधारित होते हैं। वे प्रकृति पूजक होते हैं इस कारण आधुनिक पर्यावरणीय समस्या का समाधान जितना इनके पास है दुनिया में किसी के पास नही है। पशु और पौधे इनके आराध्य होते है। उदाहरण दूल्हा देव। विवाह में गोल गधेड़ो जैसी प्रथा महिलाओं को आजादी देती है अपना वर चुनने की। गोंड, बैगा पेंटिंग और नृत्य आज वैश्विक स्तर पर सराहे जाते है। जीवन के आदर्श में संग्रहण का शब्द न रखने वाले आदिवासी समुदाय प्रतिदिन आमदनी कमायो खाओ के आदर्श में अपना जीवन व्यतीत करते थे लेकिन आज का समाज वैश्वीकरण के कारण उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने में इतना आतुर हो गया की वे न तो मुख्य धारा के हो पा रहे है ना ही खुद के आदर्श की ओर लौट पा रहे है।
"कुंभ के स्थान में चल रहा सियासी स्नान"
गंगा यमुना का संगम प्रयागराज, भारत के अध्यात्म को पोषित करता है।देश की इस आध्यात्मिक नगरी में 25 मई को लोकसभा चुनाव के मतदान होने है।इस समय प्रयागराज में राजनीतिक पारा आसमान छू रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने त्रिवेणी संगम में हाल ही में भाषण में कहा कि "समाजवादी पार्टी और कांग्रेस विकास विरोधी हैं ।दोनों पार्टी को कुंभ से ज्यादा अपने वोट बैंक की चिंता है। " प्रयागराज में कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी और अखिलेश यादव की संयुक्त सभा आयोजित की गई थी जिसमें इतनी भीड़ जुट गई थी कि भीड़ बैरिकेड तोड़कर भाषण देते अखिलेश यादव तक पहुंच गई ऐसी स्थिति में सुरक्षा की दृष्टि से दोनों नेताओं को बगैर भाषण दिए ही वापस लौटना पड़ा। प्रयागराज ,देश की सबसे हॉट और चर्चित सीटों में से एक रही है।यह सीट राजर्षि के नाम से मशहूर भारत रत्न से सम्मानित पुरुषोत्तम दास टंडन की सीट है, जो इस सीट से पहले सांसद थे। यह देश को लाल बहादुर शास्त्री और वीपी सिंह के रूप में प्रधानमंत्री दे चुकी है । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हेमवती नंदन बहुगुणा इस सीट से चुनाव लड़ चुके है।यह सीट देश के सबसे महानतम अभिनेता अमिताभ बच्चन की सीट रही है। साथ ही अपने समय में समाजवादी विचारधारा के कारण छोटे लोहिया के नाम से जाने जाने वाले ज्ञानेश्वर मिश्र तो भाजपा के संस्थापक सदस्य मुरली मनोहर जोशी भी सीट में अपनी सेवा दे चुके है।आज इन ऐतिहासिक व्यक्तियों की सीट में सेवा देने की जिम्मेदारी लेने के लिए कांग्रेस की ओर से उज्जवल रमण सिंह( पूर्व सांसद रेवती रमन सिंह के पुत्र हैं ) , भाजपा के नीरज त्रिपाठी से मुकाबले में हैं।इस बार भाजपा ने रीता लाल बहुगुणा जो मौजूदा सांसद है कि टिकट काटकर नीरज त्रिपाठी को दी है। प्रयागराज की इस लोकसभा सीट में पांच विधानसभाएं मेजा , करछाना ,इलाहाबाद साउथ , बारा और कोरांव है।जिसमें तीन में भाजपा और एक में समाजवादी पार्टी के विधायक विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं साथ ही एक सीट में अपना दल का विधायक है। ऐसे में भाजपा यहां मजबूत नजर आती है। इलाहाबाद की सीट में 18 लाख मतदाता है।जिनमें से 6 लाख ब्राह्मण और मल्लाह वोट राजनीति की दिशा दशा तय करते हैं अब तक यहां पर उच्च जातियों से ही सांसद चुनते आए हैं ।2 लाख पटेल वर्ग के वोट हैं जो कि भाजपा का समर्थक वर्ग है । इस सीट पर 3 लाख अनुसूचित जाति के वोट हैं जो कि बसपा के कोर वोटर्स माने जाते हैं लेकिन इस बार बसपा के कमजोर होने से यह वोट जिस ओर जाएंगे वहां गणित बदल सकती है। सीट के इतिहास की बात करें तो 2009 में समाजवादी पार्टी के कुंवर रमन सिंह ने 38% के लगभग वोट शेयर लेकर बसपा के अशोक वाजपेई को हराया था।जिनके पास लगभग 31% वोट प्रतिशत था । 2009 में 43.51% लोगों ने वोट डाला था जो कि 2014 में बढ़कर 53.5% तक पहुंचा था जिसने वोट स्विंग में एक बड़ी भूमिका निभाई और 2014 के चुनाव में भाजपा ने +24 प्रतिशत वोट स्विंग प्राप्त कर 2009 के11% वोट शेयर से उठकर 35% के लगभग पहुंच गई ।इसमें समाजवादी पार्टी को लगभग 8% का नुकसान हुआ था और वह दूसरे नंबर पर रही। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को फिर + 20% का वोट स्विंग प्राप्त हुआ और भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़कर लगभग 55% के आसपास चला गया। इस प्रकार भाजपा पिछले 15 सालों में 11% से बढ़कर 55% वोट शेयर तक पहुंच गई है। जो भाजपा के इस सीट पर मजबूती को दर्शाता है। लेकिन इस बार सपा और कांग्रेस का सम्मिलित वोट बैंक भाजपा के लिए चुनौती खड़ी करता नजर आ रहा है , क्योंकि सपा के बड़े पटेल नेता कांग्रेस की ओर से खड़े उज्जवल रमण सिंह को भरपूर सहयोग दे रहे है साथ ही बसपा का वोट यदि आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस के पास आता है ,तो यह भाजपा के लिए सिर दर्द साबित हो सकता है। राहुल अखिलेश की जनसभा में उमड़ी भीड़ भी जन समर्थन का एक संकेत है।
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